​मन का संयम सबसे कठिन —  स्वामिश्रीः अविमुक्तेश्वरानन्दः सरस्वती 

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संसार में सबसे अधिक कठिन काम यदि कोई है तो वह मन का संयम है । क्योंकि व्यक्ति बडे से बडा कार्य कर सकता है पर मन को वश में करने जब जाता है तब उसको पता चलता है कि यह बहुत कठिन है । लोग अपने मन से ही हारते हैं । हमारे शास्त्रों में मन को अत्यन्त चञ्चल कहा गया है । मन की गति वायु की गति से भी अधिक है । वायु को भी एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने में समय लगता है पर मन तो बहुत ही वेग वाला है । हम कहीं भी बैठे रहें हमारा मन पूरी दुनिया में कहीं भी पहुँच जाता है ।

उक्त उद्गार आज श्रीविद्यामठ के सभागार में आयोजित सत्संग के अवसर पर पूज्यपाद अनन्तश्रीविभूषित उत्तराम्नाय ज्योतिष्पीठाधीश्वर एवं पश्चिमाम्नाय द्वारका शारदापीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती जी महाराज के शिष्य प्रतिनिधि दण्डी स्वामिश्रीः अविमुक्तेश्वरानन्दः सरस्वती जी ने व्यक्त किए ।

उन्होंने पम्पा क्षेत्र का वर्णन करते हुए कहा कि एक बार राम और लक्ष्मण जी पम्पा क्षेत्र से गुजर रहे थे तो राम जी ने मार्ग में स्वर्ण के आभूषणों को गिरा हुआ देखा तो यह सोचकर कि कहीं लक्ष्मण के मन में लोभ न आ जाए इसलिए पैरों से उन आभूषणों पर धूल डालते हुए आगे बढने लगे । इसे देखकर लक्ष्मण ने पूछा कि भैया आप ऐसा क्यों कर रहे हैं तो राम जी ने बताया कि कहीं तुम्हारे मन में लोभ न आ जाए इसलिए ऐसा कर रहा । तब लक्षमण जी ने कहा कि भैया आप ही ने सिखाया है कि – 
पर धन धूलि समान ।
तो धूल से धूल को क्यों ढक रहे ? तब राम जी प्रसन्न हुए और निश्चिंत होकर आगे बढने लगे ।
पूज्य स्वामिश्रीः ने आगे बताया कि हमारे शास्त्रों में बताया गया है कि कैसे व्यक्ति का मन दूसरों की धन, सम्पत्ति की ओर नहीं जाता ।
पिता यस्य शुचिर्दक्षः माता चैव पतिव्रता ।

निजधर्मे रतिर्यस्य तस्य नो चलते मनः ।।
अर्थात् जिस व्यक्ति के पिता पवित्र और धार्मिक बुद्धि वाले हों, जिसकी माता पतिव्रता हो और जिसका निजधर्म में विश्वास हो उसी व्यक्ति का मन दूसरों की धन – सम्पत्ति को देखकर भी लोभ नहीं करता । यदि माता-पिता गडबड होंगे तभी बच्चा भी गडबड होगा । सदा इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कहीं हमारे आचरणों के कारण माता-पिता पर ऊंगली न उठने लगे । इसलिए हम सबको सदाचरण करना चाहिए ।
स्वामिश्रीः ने कहा कि धन-सम्पत्ति भी उसी के पास आती है जो चोरी आदि नहीं करता । कहा गया है –

अस्तेय प्रतिष्ठायां सर्व रत्न लाभः ।

अर्थात् जो चोरी नहीं करता, अपरिग्रह पूर्वक रहता है उसी के पास रत्न इकट्ठे होते हैं ।
स्वामिश्रीः के प्रवचन के पूर्व हरियाणा के पं कृष्ण पाराशर ने गंगा में मूर्ति विसर्जन विषय पर अपने विचार व्यक्त किए । जम्मू के पं अभिषेक शर्मा ने देवी भजन प्रस्तुत किया ।
कार्यक्रम का शुभारम्भ मंगलाचरण व गुरु पूजन से हुआ । जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती न्याय वेदांत महाविद्यालय के छात्र पं अंकित तिवारी और हितेश दुबे ने वैदिक मंगलाचरण किया । पौराणिक मंगलाचरण सत्यम षर्मा ने किया । संचालन मयंकशेखर मिश्र ने तथा धन्यवाद ज्ञापन बेंगलुरू के पं नरसिंह मूर्ति जी ने किया ।