संस्कृत भाषा में आइने को आदर्श कहा जाता है । जिस प्रकार आइने को सामने रखकर हम अपना श्रृंगार करते हैं और अपने स्वरूप में जो भी कमी हो औसे सुधारते हैं उसी प्रकार हमें अपने जीवन को ऊपर उठाने के लिए आदर्श चरित्रों को देखने की आवश्यकता है । ये चरित्र हमें इतिहास और पुराण के ग्रन्थों में मिलते हैं । जब हम महान् चरित्र वाले व्यक्तियों के जीवन को देखते हैं तब हमें पता चलता है कि हम किस ओर जा रहे हैं? हमारा जीवन राम के जैसा बन रहा है या रावण के जैसा ।
उक्त बातें आज श्रीविद्यामठ के सभागार में आयोजित सत्संग के अवसर पर पपूज्यपाद अनन्तश्रीविभूषित उत्तराम्नाय ज्योतिष्पीठाधीश्वर एवं पश्चिमाम्नाय द्वारका शारदापीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती जी महाराज के शिष्य प्रतिनिधि दण्डी स्वामिश्रीः अविमुक्तेश्वरानन्दः सरस्वती जी ने कही ।
उन्होंने आगे कहा कि महाभारत से हमें यह शिक्षा मिलती है कि जब भी कोई समूह होता है तो उस समूह का एक शिष्टाचार होना चाहिए । समूह में एक व्यक्ति प्रमुख होता है जो समूह के सभी सदस्यों के हृदर की बातों को सामने रखता है । यदि समूह के इस शिष्टाचार का पालन न कर सभी एक साथ बोलने लगें तो उसे केवल शोर ही कहा जाएगा ।
पूज्य स्वामिश्रीः ने कहा कि आज सनातन धर्म के सामने यही समस्या खडी हो गई है कि आज लोग एक समूह में एकत्र नहीं हो रहे हैं । समूह के लोग किसी एक को अपना नेता नहीं चुन रहे । इसीलिए सनातनधर्मियों की बात मजबूती से उठ नहीं पा रही है ।
पूज्य स्वामिश्रीः के प्रवचन के पूर्व जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती न्याय वेदांत महाविद्यालय के छात्र प्रशान्त त्रिपाठी ने धर्मराज युधिष्ठिर का चरित्र सुनाया ।
कार्यक्रम का शुभारम्भ वैदिक मंगलाचरण से हुआ । पं दीपक पाण्डेय व शिवदत्त ने मंगलाचरण किया । पौराणिक मंगलाचरण हर्ष तिवारी ने किया । संचालन मयंकशेखर मिश्र ने तथा धन्यवाद ज्ञापन विश्व गंगाधिकार न्यास के श्री रमेश उपाध्याय जी ने किया ।