दान करना सबसे बड़ा पुण्य का कार्य -जगतगुरु शंकराचार्य स्वामी श्री स्वरूपानंद सरस्वती जी

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अनन्तश्रीविभूषित ज्योतिष्पीठाधीश्वर एवं द्वारकाशारदा पीठाधीश्वर जगतगुरु शंकराचार्य स्वामी श्री स्वरूपानंद सरस्वती जी महाराज के चातुर्मास कार्यक्रम में शुक्रवार को महाराजश्री ने उपस्थित धार्मिक जनता को अपने अमृतवचनों के माध्यम से बताया कि मनुष्य को जीवन में दान अवश्य करना चाहिए। उन्होंने कहा कि अपनी आय के पांच हिस्से कर लेने चाहिए, जिसमें से एक हिस्सा धर्म में, एक यज्ञ में, एक परिवार को, एक समाज को और एक हिस्सा दान में देना चाहिए। इससे मनुष्य को पुण्य की प्राप्ति होती है।
महाराजश्री ने कहा कि मनुष्य को अंहकार नहीं करना चाहिए। इसके उदाहरण के लिए उन्होंने हिरण्यकश्यप की कथा सुनाते हुए कहा कि – हिरण्यकशिपु ने कठिन तपस्या द्वारा ब्रह्मा को प्रसन्न करके यह वरदान प्राप्त कर लिया कि न वह किसी मनुष्य द्वारा मारा जा सकेगा न पशु द्वारा, न दिन में मारा जा सकेगा न रात में, न घर के अंदर न बाहर, न किसी अस्त्र के प्रहार से और न किसी शस्त्र के प्रहार से उसक प्राणों को कोई डर रहेगा। इस वरदान ने उसे अहंकारी बना दिया और वह अपने को अमर समझने लगा। उसका पुत्र प्रह्लाद, भगवान विष्णु का उपासक था और यातना एवं प्रताडऩा के बावजूद वह विष्णु की पूजा करता रहा। क्रोधित होकर हिरण्यकशिप ने अपनी बहन होलिका के माध्यम से प्रहलाद को मारने का प्रयास किया, परन्तु होलिका जलकर राख हो गई। अंतिम प्रयास में हिरण्यकशिपु ने लोहे के एक खंभे को गर्म कर लाल कर दिया तथा प्रह्लाद को उसे गले लगाने को कहा।
एक बार फिर भगवान विष्णु प्रह्लाद को उबारने आए। वे खंभे से नरसिंह के रूप में प्रकट हुए तथा हिरण्यकशिपु को महल के प्रवेशद्वार की चौखट पर, जो न घर का बाहर था न भीतर, गोधूलि बेला में, जब न दिन था न रात, आधा मनुष्य, आधा पशु जो न नर था न पशु ऐसे नरसिंह के रूप में अपने लंबे तेज़ नाखूनों से जो न अस्त्र थे न शस्त्र, मार डाला। इस प्रकार अहंकार का अंत अवश्य होता है। अत: मनुष्य को अहंकार नहीं करना चाहिए।