हमारे शास्त्रों में अनेक प्रकार के पापो का वर्णन किया गया है और उन पापों के प्रायश्चित भी बताए गए हैं । सभी पापों में आत्महत्या को सबसे बडा पाप कहा गया है क्योंकि अन्य सभी पापों के प्रायश्चित के लिए तो व्यक्ति जीवित रहता है परन्तु आत्महत्या के पाप के प्रायश्चित के लिए व्यक्ति जीवित ही नहीं रहता ।
उक्त बातें आज श्रीविद्यामठ के सभागार में आयोजित सत्संग के अवसर पर पपूज्यपाद अनन्तश्रीविभूषित उत्तराम्नाय ज्योतिष्पीठाधीश्वर एवं पश्चिमाम्नाय द्वारका शारदापीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती जी महाराज के शिष्य प्रतिनिधि दण्डी स्वामिश्रीः अविमुक्तेश्वरानन्दः सरस्वती जी ने कही ।
उन्होंने आगे सज्जन और दुर्जन की पहचान के सम्बन्ध में बताते हुए कहा कि जिन व्यक्तियों का समय शास्त्र अध्ययन, संगीत, काव्य आदि अच्छे कार्यों में बीते उनको सज्जन समझना चाहिए और जिनका समय कलह आदि में ही बीते उसे दुर्जन समझना चाहिए ।
पूज्य स्वामिश्रीः आगे बताया कि पवित्र व्यक्तियो को ही भगवान् के दर्शन होते हैं । महाभारत में वर्णन है कि उत्तंग नाम का व्यक्ति जब रनिवास में पतिव्रता रानी के दर्शन के लिए जाता है तब उसको रानी का दर्शन इसलिए नहीं होता क्योंकि उसने भोजन के बाद शास्त्रीय विधि से आचमन नहीं किया था । इस कथानक से हमें यह शिक्षा मिलती है कि पवित्र जीवन जीने पर ही पवित्र वस्तुओं की प्राप्ति होती है । भगवद्दर्शन यदि करना हो तो मनुष्य को पवित्र जीवन जीना होगा ।
कार्यक्रम में प्रमुख रूप से कर्णाटक की शिवकान्तम्मा, नरसिंह मूर्ति, के प्रभाकर, मध्य प्रदेश के दुर्गेश मिश्र, बिहार के मायानन्द मिश्र, श्रीमती ममता मिश्र, हैदराबाद के श्री सद्गुरु मूर्ति व श्रीमती शारदा आदि जन उपस्थित रहे ।
पूज्य स्वामिश्रीः के प्रवचन के पूर्व जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती न्याय वेदांत महाविद्यालय के छात्र प्रशान्त त्रिपाठी ने पाण्डु राजा का चरित्र सुनाया ।
कार्यक्रम का शुभारम्भ वैदिक मंगलाचरण से हुआ । सौरभ मिश्र व शिवदत्त ने मंगलाचरण किया । पौराणिक मंगलाचरण शिवम नायक ने किया । संचालन मयंकशेखर मिश्र ने तथा धन्यवाद ज्ञापन काशी की प्रख्यात कवयित्री डा कमला पाण्डेय जी ने किया ।